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दोहा
सुख चाहहुँ दुहुँ लोक महं करले विद्यादान।
विद्या देवै अमर पद साखी निगम पुरान।। 1 ।।
धर्म मुक्ति का मूल है और अनौखा रत्न।
जिनके हिय नहिं सत्यता धर्म बसै बिनु यत्न।। 2 ।।
जिनके हिय नहिं सत्यता क्षमा दया नहिं ज्ञान।
नहीं नम्रता पुरुष वे क्या जानैं भगवान।। 3 ।।
बिनु जाने भगवान के मोक्ष नहीं ठहरंत।
सत बिनु मोक्ष न है कहीं अरु न मिलैं भगवंत।। 4 ।।
बंध मातु पितु नारि सुत हैं स्वार्थ के मीत।
बिनु स्वारथ करतार इक निशिदिन पालहिं प्रीत।। 5 ।।
दुनिया स्थिर है नहीं कोई आवै कोई जाय।
जैसे पथिक सराय में रात, टिकै उठ जाए।। 6 ।।
ईश्वर इच्छा से भए स्वर्ग नर्क पाताल।
अरु जीवन के मरन को रच राखे महा काल।। 7 ।।
निजि तन पर सहकर विपति सुजन करैं उपकार।
तरु देवैं फल जगत हित सहकर तन पर भार।। 8 ।।
नहिं पूछै कोई कुशल तुव जब धन जाय उराय।
जैसे बिनु फल वृक्ष को खग समूह तज जाय।। 9 ।।
यासे तुम को चाहिए करहुँ बुद्धि से काम।
तौ चिंता व्यापे नहीं नहीं घटै धन धाम।। 10 ।।
करहुँ भलाई सबहिं संग होवै यश अरु नाम।
नाम अमर बाकी रहै धन नहीं आवै काम।। 11 ।।
गर्व बुरा है अवनि पर वर्ग न करियो कोय।
गर्व कीन्ह तन पाय कर नाश भए क्षण सोय।। 12 ।।
गर्ववान नाशैं तुरत यही ईश की मेख।
जो प्रतीति नहीं मानई तौ परीक्षा कर देख।। 13 ।।
भजहुँ ईश भय मान उर जिन यह रच्यो शरीर।
दीन जान करि हैं कृपा और हरैं भव पीर।। 14 ।।
नही डरैं जो ईश से चलहिं धर्म प्रतिकूल।
लैं जैहैं यम नरक महं वहाँ हनैं तिरसूल।। 15 ।।
नहीं सीख उनकी गहहु करैं धर्म बकवाद।
नहीं सत्य उनके हृदय नहीं ईश की याद।। 16 ।।
नियम पालियो धरम के दीजौ दीनन दान।
मिलिहै तुमको अमर पद यह निश्चय रहमान।। 17 ।।
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